जिस
देश की अधिकांश जनसंख्या गरीबी में जीवन यापन कर रही हो उस देश में जुगाड़ का एक
अलग ही महत्व है। रोजमर्रा की जरूरतों और मुश्किलों से जूझ रहा भारत भले ही
अमेरिका न बना हो, लेकिन जुगाड़ के मामले में दुनिया में कभी कोई
मुकाबला होता है तो निश्चित रूप से सभी पुरस्कार भारत के नाम पर ही होंगे। जुगाड़
के कुछ प्रचलित रूप हैं- फटे हुए कपड़ों का झोला बनाना, पोंछा बनाना, नाली के गैस
से खाना बनाना (ऐसा मैंने TV पर किसी को बोलते सुन था), बादल का जुगाड़ करके फाइटर जेट को दुश्मन की राडार से बचाना (पता नहीं ऐसा कैसे कर लेते हैं) जूते के टूटे सोल को जबरदस्ती
चिपका कर प्रयोग करना, कपड़ों के फटे हुए भाग पर Nike, Adidas आदि ब्रांडों के स्टीकर
को सिल कर प्रयोग में लाना, बाइक के इंजन से पंप सेट बनाना इत्यादि। इसी कड़ी में
एक और जुगाड़ है – झोला छाप डॉक्टर।
वर्षों
से यह चर्चा का विषय रहा है कि झोलाछाप डॉक्टर समाज के लिए खतरा हैं इनके इलाज से
कई बार मरीजों की जान पर बन आती है। इसका बड़ा कारण है कि बीमारी की समझ से ज्यादा
झोलाछाप डॉक्टरों द्वारा एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जाता है और बिना किसी
जांच के आधार पर मरीज का इलाज किया जाता है, जिनकी वजह से कई बार केस खराब हो
जाता है। इसी कारण से समय-समय पर इनके खिलाफ
कार्यवाही भी होती है, इनके खिलाफ अभियान भी चलाया जाता है। इनकी क्लिनिक तक सील
कर दी जाती है। आज इन सभी पर चर्चा नहीं करके इस विषय पर चर्चा करने का मन कर रहा
है कि लोग इनसे इलाज क्यों करवाते हैं। इनकी जरूरत समाज में क्यों है। देश में झोला
छाप डॉक्टर की आवश्यकता जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि हमारे देश में
स्वास्थ्य व्ययस्था की उपलब्धता कैसी है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात 1:1,000 को एक स्टैन्डर्ड के रूप में परिभाषित किया है । भारत ने 2018 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन के
इस "गोल्डन फिनिशिंग लाइन 1:1,000” को पार कर लिया है। लेकिन यह पार करना ही काफी नहीं है क्योंकि इसमें
एमबीबीएस के साथ-साथ पारंपरिक चिकित्सा (जैसे-आयुर्वेद,
होमियोपैथ, यूनानी आदि) भी शामिल हैं, इसके अलावे यह आंकड़ा भ्रामक इसलिए भी है
क्योंकि देश के अधिकांश डॉक्टर शहरी क्षेत्रों में रहते हैं और प्राइवेट में
प्रैक्टिस करते हैं, जो आम लोगों के पहुँच से बाहर है। इसके अलावे देश के बहुत सारे जिले इस गोल्डन
फिनिशिंग लाइन से बहुत नीचे हैं। डॉक्टर तो चिकित्सा व्यवस्था का एक अंग हैं ही,
इसके अलावे अस्पताल, प्राथमिक उपचार
केंद्रों की संख्या कम होने से ईलाज आम जनता के पहुँच से बाहर हैं। फिर मंहगी
दवाएं भी आम लोगों के लिए नहीं है। जहाँ तक प्रति 10,000 जनसंख्या के लिए
अस्पताल में बिस्तर के उपलब्धता की बात है वहाँ विश्व में सिर्फ 12 देश हैं ऐसे
हैं जो बिस्तर की उपलब्धता के मामले में भारत से भी बदतर हैं । भारत में 10,000
भारतीयों के लिए अस्पताल में सिर्फ 05 बेड हैं। मानव विकास रिपोर्ट-2020
से पता चला है कि 167 देशों में से भारत बिस्तर की उपलब्धता पर 155 वें स्थान पर है।
भारत की तुलना में जनसंख्या अनुपात के लिए कम बिस्तरों वाले देश युगांडा, सेनेगल, अफगानिस्तान, बुर्किनाफासो, नेपाल
और ग्वाटेमाला हैं । यहां तक कि बांग्लादेश प्रति 10,000 आबादी पर 8 बिस्तरों के साथ भारत
की तुलना में बेहतर है।
देश
के विभिन्न जिलों में अस्पताल होने के बावजूद लोगों के पहुँच से बाहर हैं क्योंकि
अस्पताल में डॉक्टर नहीं होते हैं, दवाएं नहीं होती है, लोगों के पास किराये के
पैसे नहीं होते कि वो अस्पताल तक पहुँच सकें, दवा खरीद सकें। बहुत से अस्पताल तो
ऐसे हैं जहाँ सिर्फ 15 अगस्त और 26 जनवरी को झंडे फहराने का काम होता
है और उसी दिन डॉक्टर या स्टाफ भी मौजूद रहते हैं या फिर उस दिन जिस दिन किसी
मंत्री या बड़े अधिकारियों का दौरा होता है । मतलब अधिकांश अस्पताल सिर्फ कागज पर
ही मौजूद हैं। जहाँ तक प्राइवेट अस्पताल की बात है उसका खबर पढ़कर ही मध्यमवर्ग के
लोग भी घबराते हैं। जैसे- अस्पताल ने 20 घंटे के ईलाज के लिए 1,15,000/-, दो दिन के ईलाज के लिए 5 लाख रुपये, अस्पताल प्रशासन का शव देने से इनकार आदि
खबरें हमारे अखबारों के वैसे हिस्से बन गए हैं जिसको लोग खुद अपने नजरों से बचकर
पलट देते हैं। शहरों में तो बड़े दवा दुकानों और बड़े अस्पतालों के गेट से निकलती AC की
ठंडी हवाओं के शरीर को स्पर्श करने मात्र से रोमांचित होने वाले ग़रीबों को उसमें
अंदर जाने से उतना ही डर होता है जितना कि उनके घर में बचे-खुचे ख़ाली बर्तनों के छिन
जाने से । शहरी डॉक्टरों का डिजाइनदार, कांच से बने हुए साफ-सुथरे और भव्य
क्लीनिक गाँव के मरीजों को भयभीत करते हैं । वह गांव में रहकर बीमारी भोग लेंगे लेकिन शहरी अस्पतालों के आतंकित कर देने वाली
स्वच्छता, शांति और बड़े डॉक्टर के भव्य चेहरे उन्हें शहर जाने से रोकता है। ऐसे में
उन्हें भी ऐसे ईलाज की जरूरत महसूस होती है जो ना कि उनके घर के पास उपलब्ध हो
बल्कि उनके बजट में भी हो। जहाँ डॉक्टर नहीं पहुँच पाते वहीं झोलाछाप डॉक्टरों की पहुंच आज भी दूर-दराज के
गावों तक है। गांव के लोग इन पर काफी विश्वास भी करते हैं। ये 24X7X365 लोगों कि सेवा में उपलब्ध रहते हैं।
इनके व्यवहार अपनापन भरा और जनता में विश्वास पैदा करने वाला होता है। मरीज के
बुलाने पर यह उनके घरों तक पहुंच कर सेवा
प्रदान करते हैं। इनके झोले में ईलाज के लिए कई तरह की दवाएं और इन्जेक्शन भी होते
हैं जो कि काफी कम मूल्य पर लोगों के लिए उपलब्ध होता है। ये लोग ईलाज के बदले बहुत ही मामूली रकम लेते
हैं और कई बार मरीज के पास ईलाज के पैसे नहीं रहने पर ये मरीज के आग्रह पर उनसे
गेहूं, चावल, आलू, दूध या मरीज के पास उपलब्ध कोई अन्य कृषि पैदावार भी ले लेते
हैं। इसके अलावे इनके संपर्क शहर में अच्छे चिकित्सक से भी होते हैं। ये लोग आवश्यकता
पड़ने पर मरीज का शहर में इलाज के लिए जाने में मदद भी करते हैं। कोरोना महामारी
के समय इनका एक बहुत ही मानवीय रूप देखने को मिल है। जहाँ बड़े डॉक्टर मरीजों को
दूर से देख कर भी ईलाज करने में हिचकिचाते रहे वहीं ये लोग मरीजों के घर जा कर उनको
आक्सिजन लगाने में, इन्जेक्शन लगाने में, ब्लड प्रेशर/शुगर मापने में और दवा
उपलब्ध कराने में मदद करते रहे। जहाँ देश की बड़ी आबादी दवा दुकानदार से ही पूछ कर
दवा लेकर अपनी बीमारी दूर कर लेती है वहाँ इन झोला छाप डॉक्टरों का होना गरीबों के
लिए किसी वरदान से कम नहीं है। वैसे, सभी चाहे गरीब हों या अमीर अच्छा ईलाज चाहते
हैं। गरीब लोग मजबूरी से ही झोला छाप डॉक्टर के पास जाते
हैं और कई बार नुकसान भी कराते हैं।
अर्थव्यवस्था
में आपूर्ति और मांग के नियम, सबसे बुनियादी आर्थिक नियमों में
से एक है और लगभग सभी आर्थिक सिद्धांतों में लागू भी होता है। व्यवहार में, लोगों
द्वारा किसी वस्तु की मांग एवं आपूर्ति ना सिर्फ उस वस्तु का मूल्य निर्धारित करता
है बल्कि उसकी उपलब्धता को भी सुनिश्चित करता है। जबतक सरकारें सभी आम लोगों तक चिकित्सा व्ययस्था की उपलब्धता
सुनिश्चित नहीं कर पाएगी, समाज में झोला छाप डॉक्टर उस मांग की पूर्ति करते
रहेंगे। सरकार द्वारा चिकित्सा व्यवस्था की
समुचित उपलब्धता तक ये झोला छाप डॉक्टर मोदी सकरार की दो योजनाओं- “प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना” और “जहाँ
बीमार-वहीं उपचार” के मुख्य ध्वजवाहक बने रहेंगे।
वीडियो साभार:- WhatsApp University
नोट-विडिओ देख कर भले ही हास्य की अनुभूति हो लेकिन
झोला छाप डॉक्टर द्वारा कहे शब्द और उनका आत्मविश्वास एक कटु सत्य है, जिसके भरोसे
अधिकांश गरीब जनता जीवन यापन करती है ।