ABHISHEK KAMAL

My photo
Patna, Bihar, India
Please follow to know :-)

Monday, May 24, 2021

बढ़ती खाई


 

हमारे शहरों में कई ऐसे जगहें हैं जहाँ सुबह होते ही सैकड़ों की संख्या में लोग पतली और टूटी-फूटी नालियों से भरी सड़कों से अपनी नयी-पुरानी साइकिलों से या फिर पैदल निकल पड़ते हैं। वे कारखानों में, दुकानों में, मॉल में या किसी बन रही इमारत में दिहाड़ी मजदूर होते हैं  कुछ तो प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड का भी काम करते हैं । इन लोगों की जिंदगी काफी मुश्किल भरी होती है । आज के जमाने में जितनी तेजी से महंगाई अपना पैर फैला रही है, दैनिक जरूरतें पूरी करना किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए जबर्दस्त हौसले का काम है और इन लोगों के लिए तो किसी जंग जीतने के बराबर है । इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने परिवार को दूरदराज के किसी कस्बे या गांव में छोड़ कर शहर में अकेले ही रहते हैं । इनके पिताओं को इंतजार होता है कि शहर से बेटा कुछ पैसे भेजे और वे अपने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करा सकें, मानसून आने से पहले टूटे हुए घर की मरम्मत कर सकें । कुछ विधवा माँ भी होती है जिन्हे भोजन और इलाज की जरूरत होती है । कुछ उम्रदराज बहनें भी होती हैं जिनको अपने शादी का इंतजार होता है । गरीबी की मार झेलती पत्नियां भी  जो हमेशा इस उम्मीद में रहती हैं कि शायद वे बच्चों की पढ़ाई के लिए कुछ पैसे बचा सकें। कुल मिला-जुला कर हालत यह होती है कि अपनी मामूली कमाई में से ये लोग इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि परिवार के लोगों को ज्यादा से ज्यादा पैसे भेज सकें।

 

सालों-साल से इन गरीब मजदूर परिवारों का आदर्श वाक्य होता है कि ‘दाल-रोटी खाओ- प्रभु के गुण गाओ’ और इन्ही से इन्हे धैर्य भी मिलता है । लेकिन अब तो दाल भी लगभग सौ रुपए पार और आटा पचास रुपये प्रति किलो हो गयी है और कोरोना महामारी के कारण बंद हुए काम और आय के बंद होने से इन गरीबों को यह समझ में नहीं आ रहा कि इस बेरहम शहर में वे क्या खाएं और किसके गुण गाएं। शहर का गणित भी बहुत जटिल किस्म का था। शहर में कुछ धनाढ्य लोगों के लिए साप्ताहिक छुट्टी शानदार होती थीं (कोरोना बीतने के बाद फिर उसी तरह होती रहेगी) । सप्ताहांत में इस वर्ग के लोग अपनी छोटी-बड़ी कारों में झुण्ड के झुण्ड मस्ती करने निकलते हैं, मंहगे रेस्टोरेंट में खाना खाते हैं और फिर किसी मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल में बैठकर पिक्चर देखने का लुत्फ उठाते हैं । इस सारी मौज-मस्ती में ये  लोग इतने खर्च कर देते हैं जो गरीब परिवारों के कई महीनों की आय से भी अधिक होता है । खैर देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह भी एक आवश्यक तत्व है।  यह देश ऐसे ही अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है ।

 

देश के सभी सरकारों और इस क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं को इस विषय पर और ज्यादा काम करने की जरूरत है (यहाँ भी विरोधाभास यह है कि इस विषय पर आजादी के बाद से ही काम हो रहा है) क्योंकि किसी भी समाज में बढ़ रही यह खाई समाज को और देश को अराजकता की ओर ही ले जाएगी। एक तरफ जहाँ देश की अधिकांश जनसंख्या खाने में सिर्फ चावल, रोटी, नामक और तेल खाकर गुजारा करते हैं और 70 के दशक का न्यूनतम कैलोरी का फार्मूला (जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में एक वयस्क के लिए क्रमशः 2,400 और 2,100 कैलोरी की न्यूनतम दैनिक आवश्यकता पर आधारित था) आज भी बेईमानी ही है। वहीं दूसरी ओर देश में अरबपतियों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। प्रख्यात अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने यह बताया था कि किस प्रकार भारत के अधिकांश अरबपतियों ने अपनी संपत्ति इन्फॉरमेशन टेक्नॉलॉजी अथवा सॉफ्टवेयर से नहीं बल्कि जमीन, प्राकृतिक संसाधनों और सरकार द्वारा मिलने वाले ठेकों और लाइसेंसों से अर्जित की है। दुर्भाग्यवश आज भी गरीबी-निवारण में सुस्ती और इस प्रकार के अरबपतियों (जो प्राकृतिक संसाधनों के लूट से अरबपति बन रहे हैं) की संख्या में तेज वृद्धि निर्बाध जारी है और यह अत्यंत चिंताजनक है। आने वाले समय में कोरोना महामारी और उससे होने वाले वैश्विक मंदी से यह असंतुलन और ज्यादा बढ़ेगा, यह एक बड़ी चुनौती है।

No comments: